गर्म हवा कानो को ऐसे छू रही हैं , मानो शरीर की बची पानी भी अभी वाष्प बना जाये | पैर भी कश्मकश के दलदल से निकल नहीं पा रहे |पर उनकी तो सफर बड़ी निराली है | गाड़ी भी भाग रही है और सड़क भी | मंजिल भी आगे आगे , कारवां की परवाह नहीं | कोई छूट तो नहीं गया ? कोई बातनहीं , नए मिल जायेंगे |मुझे भी तो एक हाथदे दो , निकल लो इस दलदल से , मैं भी साथ मैं दौडूंगा | सोचो , दौड़ पाओगे !!! बहुत कठिन है , गतिमान होने के बाद रुकना मुस्किल है , पीछे मुड़ना भी नहीं | कोई मित्र नहीं , हाँ साथी जरूर मिलेंगे | ट्रैन के दूसरे सीट के सहसवार की तरह,
ऊंचाइयां रिझाती हैं ,गहराइयाँ डराती हैं ,
ठहरना तड़पाती है ,
क्या करूं, मुसाफिर हूँ -
अनजानी सी राह पर चलते है जाना .....