Total Pageviews

Wednesday, 12 September 2018

हार से जीत

सीखी भी हमने युद्ध थी, सच में अपना विस्वास था,
सीखी थी हमने वाक् पटुत, ना जानी इसकी पीड़ा थी ।

सीखा था हमने जीतना,  ना सीखी कला बदले की।
होता कड़वा सच है, ना जानी इसकी व्यथा  है हार ।

भरा था अभिमान,  बिलकुल ही ना था कोई दमभ,
ज्ञान का था समंदर, ना ही था कोई आक्रोश,

थे बहुतेरे तीर , तरकश में आपके,
था  नहीं गर कमज़ोर कवच भी ।

कर गया मगर सच डगमग डगमग,कह दीया युधिष्ठिर  “अस्वस्थमा हतो”
दे दिया जीत का झूठा अवसर।

तरकश से निकले तीर ने , कर दिया खंड विस्वास की,
भुजा नहीं , गर हुआ विखंडित मनोबल।

गर हार नहीं मानी ख़ुद से,फिर हुआ खड़ा तन मन फिर से,
खंडित खंडित विस्वास भी,ना पाया रोक पग को अग्रसर।

जीत तो जाएँगे, कारवाँ भी बनाएँगे
आप भी साथ आएँगे, अपने भी साथ लाएँगे।





अकेलापन

ऊँचाइयों पर बैठा,
सिसकता, बिलखता ये मन
अकेला ए मन।

उलझनो की गहराइयों में,
असंयमित, विचलित ये मन
तनहा तनहा है ए मन।

प्रेम के सागर में,
विस्मृत, कुंठित ये मन
एकाकी पृथक है ए मन।

द्रव्य की बहुलता में
आशंकित , विघटित ये मन
सार्थकता से दूर ए मन।

कहानियों के  समंदर में
व्यथित, अकुलित ये मन
सच्चाई से परे ए मन

हँसी के फुहारों की,
अलहरता के मदहोशी की,
बेफ़िक्री के बयार की,
ना बीते कल की ना आने वाले कल की
ना आशा की ना जिज्ञाशा की
मित्रों के साथ
एक दिन और गुज़ारने का लालाईत ये मन।