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Thursday, 12 June 2014

दो बूंद

सुलग  रही थी धरती,
तीब्र  गूँज थी हाहाकार की,
छुप गया चाँद भी अमावस से ,
आभास नहीं थी शीतलता की ,

चूमा धरती को दो बूंदों ने,
हो गया तभी संतृप्त  जहाँ  ,
गए सज तभी सबके सपने  ,
छा गयी किरण  आशाओं की,

नेपथ्य अभी भी बोल रहा ,
दो बूंदों से होता क्या है ?
यह आलेख सुन्दर सिर्फ पन्नों पर ,
नहीं मिटेगी भूख इतने से ,

दो बूंदों ने बिस्वास दिया ,
सपनों में है संसार बसा ,
कर्म वही तो करतें हैं ,
जो सपने देखा करते हैं ,

सूखे वन भी झूमेंगे ,
नदियाँ फिर कल कल होंगी,
खेतों में फसले नाचेंगी  ,
और गीत पुराने गूंजेंगे ,

समय चक्र भी घूमेगा ,
कदम आगे ही जायेंगे ,
विजय अभी तो बाकी है ,
हुंकार हमें तो करने दो . ----- प्रकाश 

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