सुलग रही थी धरती,
तीब्र गूँज थी हाहाकार की,
छुप गया चाँद भी अमावस से ,
आभास नहीं थी शीतलता की ,
चूमा धरती को दो बूंदों ने,
हो गया तभी संतृप्त जहाँ ,
गए सज तभी सबके सपने ,
छा गयी किरण आशाओं की,
नेपथ्य अभी भी बोल रहा ,
दो बूंदों से होता क्या है ?
यह आलेख सुन्दर सिर्फ पन्नों पर ,
नहीं मिटेगी भूख इतने से ,
दो बूंदों ने बिस्वास दिया ,
सपनों में है संसार बसा ,
कर्म वही तो करतें हैं ,
जो सपने देखा करते हैं ,
सूखे वन भी झूमेंगे ,
नदियाँ फिर कल कल होंगी,
खेतों में फसले नाचेंगी ,
और गीत पुराने गूंजेंगे ,
समय चक्र भी घूमेगा ,
कदम आगे ही जायेंगे ,
विजय अभी तो बाकी है ,
हुंकार हमें तो करने दो . ----- प्रकाश
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