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Friday, 28 November 2014

लेकिन, किसी ने सोचा ही नहीं की हम बीज हैं,

लेकिन किसी ने सोचा ही नहीं की हम बीज हैं ,

उन्होंने हमें चूसी हुइ गुठली समझ फ़ेंका, 
इक आंधी ने धरती पर मिटटी के चादर में लपेटा ,
बादल की बूंदों ने कभी प्यास  मिटाई ,
सूरज ने भी अपनी लाल आँखों से डराया ,

लेकिन, किसी ने सोचा ही नहीं की हम बीज हैं ,

आसमान को चूमने की ख्वाहिश थी हमारी ,
उड़ते परिंदों को आसरा देने की चाहत थी हमारी ,
भटकते मुशाफिरों को इक नींद देनी थी हमेँ ,
भूखे पेट को फलों का सवाद दिलाना था हमेँ ,

लेकिन, किसी ने सोचा ही नहीं की हम बीज हैं ,

आखिर क्यूँ ? आखिर क्यूँ  नहीं ? द्वंद्व अभी भी जारी है
अभी भी क्रमसर जारी  है पेड़ का बढ़ना,
उतरोतर जारी है पत्तीओं का पनपना,
जड़ों का बिखरना भी जारी है, 

लेकिन, किसी ने सोचा ही नहीं की हम बीज हैं ,

कुछ लेने नहीं, कुछ कर दिखाने और कर जाने की ज़िद है ,
सोते तो सभी है लेकिन हमेँ तो खड़े होकर ही सोने की जिद है ,

लेकिन, किसी ने सोचा ही नहीं की हम बीज हैं ,

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