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Tuesday, 24 July 2012

बाबा हरिहरनाथ होली खेलत सोनपुर में..

मेरी माँ ने कुछ विज्ञापन के बिखरे हुए कागज को उठाया चुपचाप और मुझे दिखाया ... बेटे होली आ गई है ... और परिवार में सभी के लिए कुछ कपड़ा खरीदारी की जरूरत है ..इस अवसर का महत्व नहीं देते हुए मैंने उससे कहा, कुछ समय के बाद खरीद लेंगे. ....मुझे लगता है, भूमण्डलीकरण और उपभोक्तावाद के बढ़ते दायरों, बड़े-बड़े माल में किसी कम्पनी के सेल आफर के बीच इस रस और आनंद के आन्तरिक उल्लास को भूल गया था ...

लेकिन जल्द ही माँ ने मुझे बचपन की याद दिला दी...होली पर एक नया कपड़ा मिलने की खुशी बहुत बड़ी होती थी..और भी बड़ा था सिले कपड़े प्राप्त करने के लिए इंतजार ...होलिका दहन के बारे में सोचते ही याद आती हैं , ..... कपड़े की मुश्त के चारों ओर तार से बुनी और दो दिन के लिए मिट्टी के तेल में रखने के बाद पूरी रात के लिए तैयार ... विशेष  गे ना  . 10-20 लोगों के द्वारा अंधेरी रात में इस आग के वस्तु को  घूमाने का दृश्य सच में लुभावना होता था ... और बीच में एक "चना के खेत" में कूदने... होरहा लगाना  ..... एक साहसिक कहानी से अधिक होता थी..... .पकडे  गये फिर... अगले दिन और भी यादगार..
हो सकता है पीचकारी का उपयोग थोड़ा जटिल था ...इसलिए हाथ प्रचलन में अधिक होता था. और लोगों को पता था कि रंग में रसायनों के प्रभाव अधिक हानिकारक है. उस जगह में, गोबर , मिट्टी बेहतर है. और हां, क्योंकि आपको  सिर्फ प्राकृतिक जल या नहर में कूदने की जरूरत होती थी. और सब कुछ बस एक छप में धुल जाता था.
फिर वहाँ सुंदर दोपहर शुरू...समूह के साथ घूमना ...एक दालान से दूसरे में जाना. और हर पल भांग पेडा के लिए प्रतीक्षा...हर किसी का सफेद कपड़ा, विशुद्ध लाल रंग में साराबोर... सातवें आसमान पर दिमाग .. झाल  और ढोलक की ध्वनि इस अवसर को और भी मादक  बना देता.फगुआ की बोल स्वर्ग पृथ्वी के करीब ला देता ... मैं अपनी आँखें बंद , गहरे विचार साथ गुनगुना रहा था...

... बाबा हरिहरनाथ होली खेलत सोनपुर में..  (  FB Note: 19th march 2011)

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