चाहे वो कोक के आने का समय था या कंप्यूटर के
बक्से का ऑफिस के एक कोने में अपना जगह बनाने की कश्मकश, समाज का एक तबका प्राचीनता की ओट में आधुनिकता के ऊपर पत्थर फेंकने से कभी
नहीं कतराया. भले ही आज वो बेल के शरबत के साथ साथ कोक के एक घूंट का आनंद लेने
में जरा भी शर्म नहीं महशूश करता है. कंप्यूटर तो दूर की बात , आज वो आई - फ़ोन और आई -पैड के बिना ५ मिनट भी नहीं रहता . आज वही कहानी
रिटेल व्यापार की है.
बड़े खूबसूरत लगते हैं , हरे भरे खेत, गाँव की शांत और सरल जिन्दगी , लेकिन जो इस खूबसूरती के पीछे ताउम्र लगा देते हैं, चार पैसे भी नहीं जोड़ पाते. गाँव के साव जी का भाव तो वहीँ का वहीँ, उन्होंने तो शायद महंगाई शब्द सुना ही नहीं. वो भी क्या करें , गाँव से उठाकर छोटे शहर के लालाजी के दे आयेंगे और दो पैसे बना लेंगे . कम
से कम उनके घर तो खुशहाली रहेगी. छोटे लालाजी बड़े शहर के बड़े लालाजी को और वो
फैक्ट्री के मैंनेजर साब को बेच आयेंगे. वो गेंहू, जो मिटटी के घर वाले ने
पांच रुपे सेर बेचा , कंपनी के सप्लाय चेन मैंनेजर ने १५०० रुपे क्विंटल
ख़रीदा. उसके ऊपर सी ऍफ़ ओ साब ने बड़ी माथा पच्ची कर , सेल्स को १८० रुपे पैकेट बेचने को कहा. गेंहू से बने इस आंटे ने फिर अपनी
उलटी यात्रा शुरु की. पहले बड़े डिसत्रिबुटर , फिर छोटे डिसत्रिबुटर
फिर अंत में छोटे किराने की दुकान से २५० रुपे पैकेट बनकर किसान के बेटे के घर
पंहुचा, जो बेचारा एक फैक्ट्री में ५००० रुपिया के
दरमाह पर गुजरा कर रहा था.
गेंहू का खेत से पेट तक का सफ़र लम्बा तो था
लेकिन इसमें दुःख सिर्फ पेट और खेत वाले को था, बाकि तो सभी आनंद में
थे. जो इसी बीच इसमें कुछ और भी चीजे मिलाकर,
आंटे के वजन के साथ साथ पेट को भी मुसीबत में
डाल देते है.
अब जब वालमार्ट की कहानी आई, तो लालाजी और सावजी तो चिंता में ..अरे कहीं कोई सीधे गाँव न पहुँच जाये
खरीदने को. क्या होगा उनका?
कहीं उन्हें भी बड़ी खूबसूरत सी दिखने वाली
दुकानों में बारकोड रिडर लेकर ,
कंप्यूटर पर न बैठना पड़े!!! और वो किसान का
बेटा बरमूडा पहन के सामान खरीदने न पहुँच जाये ....
या फिर उनकी दुकान भी एक छोटी से वालमार्ट हो
जाये....
( किसी व्यक्ति विशेष या समाज के लिए नहीं
है , सिर्फ एक प्रयास है रिटेल व्यापार को समझने की ) - PT