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Tuesday, 18 September 2012

परिंदे तो थे हम

परिंदे तो थे हम,
न आसमाँ का डर था ,
न जमीं की ख़ौफ,
ऐसा पिंजरों ने बाँधा  ,
न अब उड़ने की चाहत, न जमीं पर चलने की हिम्मत
 
कभी रास्ते न पूछा,
अपनी राह बनायीं खुद,
दिखाई राह दुनिया को,
अब बेगाने हैं अपने रास्ते ही,
न नयी रास्तों की चाहत , न नयी मंजिलों की खोज

Monday, 17 September 2012

रिटेल व्यापार


चाहे वो कोक के आने का समय था या कंप्यूटर के बक्से का ऑफिस के एक कोने में अपना जगह बनाने की कश्मकश, समाज का एक तबका प्राचीनता की ओट में आधुनिकता के ऊपर पत्थर फेंकने से कभी नहीं कतराया. भले ही आज वो बेल के शरबत के साथ साथ कोक के एक घूंट का आनंद लेने में जरा भी शर्म नहीं महशूश करता है. कंप्यूटर तो दूर की बात , आज वो आई - फ़ोन और आई -पैड के बिना ५ मिनट भी नहीं रहता . आज वही कहानी रिटेल व्यापार की है.

बड़े खूबसूरत लगते हैं , हरे भरे खेत, गाँव की शांत और सरल जिन्दगी , लेकिन जो इस खूबसूरती के पीछे ताउम्र लगा देते हैं, चार पैसे भी नहीं जोड़ पाते. गाँव के साव जी का भाव तो वहीँ का वहीँ, उन्होंने तो शायद महंगाई शब्द सुना ही नहीं. वो भी क्या करें , गाँव से उठाकर छोटे शहर के लालाजी के दे आयेंगे और दो पैसे बना लेंगे . कम से कम उनके घर तो खुशहाली रहेगी. छोटे लालाजी बड़े शहर के बड़े लालाजी को और वो फैक्ट्री के मैंनेजर साब को बेच आयेंगे. वो गेंहू, जो मिटटी के घर वाले ने पांच रुपे सेर बेचा , कंपनी के सप्लाय चेन मैंनेजर ने १५०० रुपे क्विंटल ख़रीदा. उसके ऊपर सी ऍफ़ ओ साब ने बड़ी माथा पच्ची कर , सेल्स को १८० रुपे पैकेट बेचने को कहा. गेंहू से बने इस आंटे ने फिर अपनी उलटी यात्रा शुरु की. पहले बड़े डिसत्रिबुटर , फिर छोटे डिसत्रिबुटर फिर अंत में छोटे किराने की दुकान से २५० रुपे पैकेट बनकर किसान के बेटे के घर पंहुचा, जो बेचारा एक फैक्ट्री में ५००० रुपिया के दरमाह पर गुजरा कर रहा था.

गेंहू का खेत से पेट तक का सफ़र लम्बा तो था लेकिन इसमें दुःख सिर्फ पेट और खेत वाले को था, बाकि तो सभी आनंद में थे. जो इसी बीच इसमें कुछ और भी चीजे मिलाकर, आंटे के वजन के साथ साथ पेट को भी मुसीबत में डाल देते है.

अब जब वालमार्ट की कहानी आई, तो लालाजी और सावजी तो चिंता में ..अरे कहीं कोई सीधे गाँव न पहुँच जाये खरीदने को. क्या होगा उनका? कहीं उन्हें भी बड़ी खूबसूरत सी दिखने वाली दुकानों में बारकोड रिडर लेकर , कंप्यूटर पर न बैठना पड़े!!! और वो किसान का बेटा बरमूडा पहन के सामान खरीदने न पहुँच जाये ....

या फिर उनकी दुकान भी एक छोटी से वालमार्ट हो जाये....

( किसी व्यक्ति विशेष या समाज के लिए नहीं है , सिर्फ एक प्रयास है रिटेल व्यापार को समझने की ) - PT

Saturday, 15 September 2012

रिश्ते


किसी मंजिल की खोज में निकले थे..किसी कारवां की तलाश थी
कभी मिले सुबह के सुनहरे पल ..कभी बारिश ने भिंगोया ..कभी दुपहर की तीख मिली
कहीं शाम सुहानी थी तो कहीं रात अँधेरी थी ..
मंजिलें भी मिली, कुछ कारवां भी रास्ते में आये....
लेकिन वो छूटते चले गए जिनके साथ सपने सजाये थे...

कुछ रिश्ते भी छुट गए, कुछ नाते भी टूट गए
अब तो वो रास्ते भी भूल गए, जहाँ से चले थे

ये मंजिल की चाहत ... ये रिश्तों की खोज ...

Friday, 14 September 2012

मनमोहन का दूसरा जनम

मनमोहन का दूसरा जनम १९९० के उस दौर का याद दिला दिया ..जब हमें सोना गिरवी रखने की नौबत आ गयी थी . मंडल और कमंडल के द्वंध में तीसरे मोर्चे ने जनम लिया था . हम भी मंडल से अच्चुभ्ध थे, इसलिए नहीं की मंडल वाले पसंद नहीं थे बल्कि इसलिए की ये डर सताती थी की कोई नौकरी मिलेगी की नहीं? गिने चुने इंजीनियरिंग कॉलेज और फिर गिनी चुनी सरकारी नौकरियां ...क्या होगा ? हमने अंश और हर के खेल में, अंश के बढ़ने बारे में सोचा ही नहीं. हमेशा हर से अपनी हिस्सेदारी घटे हुआ देखा. अर्थशास्त्र सिर्फ
एक अतिरिक्त विषय था. हमारे एक मित्र के बड़े भाई ने उदारीकरण और लाईसेंस राज के ख़तम होने की बात समझाने की कई बार बहुत कोशिश की , लेकिन हमारे समझ से दूर ...कुछ कुछ कमंडल का असर हो गया था. प्रेस्त्रोइका और ग्लास्नोस्त की भाषा बहुत कठिन थी. ....
१० साल गुजरने के बाद , जब पीछे के कहानी समझ में आई तो हमें आंध्र के एक ब्रह्मिन और पजाब के सरदार का योगदान समझ में आया ... एक चाणक्य की कूटनीति जानता था तो दूसरा अर्थशास्त्र . देश को एक दिशा दी और दशा भी बदल गयी. कमंडल वाले भी ..चाहे स्वदेशी की रट लगायें, किया वही जो सरदार ने सिखाया. परिणाम सबके सामने था. इंजीनियरिंग कॉलेज इतने, जितने की इतिहास के भी नहीं ..और नौकरियां इतनी की , एक पत्थर फेंको तो वो एक अमेरिका से वापिस आ रहे को लग जाये. क्या परिवर्तन कर दिखाया... अंश बेहिसाब बढ़ने लगा , हर को सभी भूल गए ....लेकिन इस खेल का दूसरा पहलु भी निकल आया, बिना मेह्नत की रोटी के खेल में बहुतों को स्वीश बैंक का रास्ता भी मिल गया. बेचारा सरदार बेबश हो कर देखता रहा. 2G और कोल गेट में अर्थशास्त्र भटक गया .
समय फिर करवट बदल रही थी. हम फिर १९९० के शुरुवाती दौर में पहुच गए . ममता, मुलायम और मायावती फिर से अपनी पैर फैला चुके हैं . कमंडल अपनी आस्तित्वा की तालाश में , संसद को सड़क पर ले आये हैं . उनका अर्थ शास्त्र भी वही है लेकिन करें तो क्या करें?
लेकिन आज सरदार फिर से वो रास्ते पर निकल पड़ा है....अफ़सोस उसके साथ चाणक्य नहीं है. पता नहीं कितनी दूर चल पायेगा... इन २० सालों का अर्थशास्त्र की मेरी समझ यही कहती है ..चले चलो , यही रास्ता है ...एक ही समझ नहीं आती है ..ये खेल अगर साफ़ सुथरे तरीके से होता तो ज्यादा अच्छा होता. क्या किया जाये, लक्ष्मी होती ही ऐसी हैं !!!!

भ्रस्टाचार

मैं भ्रस्टाचार हूँ ,
मैं काल से परे हूँ
मैं सम्प्रदाय, जाती , पार्टी नहीं जानता ..
मुझे सभी गले लगाते हैं, लेकिन अपना कहने से शर्माते हैं.
मै गन्दा हूँ, लेकिन मुझमे डुबे सफ़ेद वस्त्रों मे ज्यादा दिखते हैं.

जो मेरे दोस्त नहीं ..
वो भूखे हैं ..नंगे हैं , सर पे छत नहीं ..
... या आवाज लगाते फिरते हैं

जो लिपट गए वो जिन्दा हैं, मगर रूह को भूल गए
दया, धर्म की फिकर नहीं ..न फरेब से डरते हैं .
एक बार जो उलझ गए ..सुलझाना उनको मुश्किल है.

लेकिन अब तो सच बोल दो
थक जाओगे , नकाब बदल के
फँस जाओगे, अपने ही जाले में
कब तक गिरगिट रह पाओगे.