मनमोहन का दूसरा जनम १९९० के उस दौर का याद दिला दिया ..जब हमें सोना गिरवी रखने की नौबत आ गयी थी . मंडल और कमंडल के द्वंध में तीसरे मोर्चे ने जनम लिया था . हम भी मंडल से अच्चुभ्ध थे, इसलिए नहीं की मंडल वाले पसंद नहीं थे बल्कि इसलिए की ये डर सताती थी की कोई नौकरी मिलेगी की नहीं? गिने चुने इंजीनियरिंग कॉलेज और फिर गिनी चुनी सरकारी नौकरियां ...क्या होगा ? हमने अंश और हर के खेल में, अंश के बढ़ने बारे में सोचा ही नहीं. हमेशा हर से अपनी हिस्सेदारी घटे हुआ देखा. अर्थशास्त्र सिर्फ
एक अतिरिक्त विषय था. हमारे एक मित्र के बड़े भाई ने उदारीकरण और लाईसेंस राज के ख़तम होने की बात समझाने की कई बार बहुत कोशिश की , लेकिन हमारे समझ से दूर ...कुछ कुछ कमंडल का असर हो गया था. प्रेस्त्रोइका और ग्लास्नोस्त की भाषा बहुत कठिन थी. ....
१० साल गुजरने के बाद , जब पीछे के कहानी समझ में आई तो हमें आंध्र के एक ब्रह्मिन और पजाब के सरदार का योगदान समझ में आया ... एक चाणक्य की कूटनीति जानता था तो दूसरा अर्थशास्त्र . देश को एक दिशा दी और दशा भी बदल गयी. कमंडल वाले भी ..चाहे स्वदेशी की रट लगायें, किया वही जो सरदार ने सिखाया. परिणाम सबके सामने था. इंजीनियरिंग कॉलेज इतने, जितने की इतिहास के भी नहीं ..और नौकरियां इतनी की , एक पत्थर फेंको तो वो एक अमेरिका से वापिस आ रहे को लग जाये. क्या परिवर्तन कर दिखाया... अंश बेहिसाब बढ़ने लगा , हर को सभी भूल गए ....लेकिन इस खेल का दूसरा पहलु भी निकल आया, बिना मेह्नत की रोटी के खेल में बहुतों को स्वीश बैंक का रास्ता भी मिल गया. बेचारा सरदार बेबश हो कर देखता रहा. 2G और कोल गेट में अर्थशास्त्र भटक गया .
समय फिर करवट बदल रही थी. हम फिर १९९० के शुरुवाती दौर में पहुच गए . ममता, मुलायम और मायावती फिर से अपनी पैर फैला चुके हैं . कमंडल अपनी आस्तित्वा की तालाश में , संसद को सड़क पर ले आये हैं . उनका अर्थ शास्त्र भी वही है लेकिन करें तो क्या करें?
लेकिन आज सरदार फिर से वो रास्ते पर निकल पड़ा है....अफ़सोस उसके साथ चाणक्य नहीं है. पता नहीं कितनी दूर चल पायेगा... इन २० सालों का अर्थशास्त्र की मेरी समझ यही कहती है ..चले चलो , यही रास्ता है ...एक ही समझ नहीं आती है ..ये खेल अगर साफ़ सुथरे तरीके से होता तो ज्यादा अच्छा होता. क्या किया जाये, लक्ष्मी होती ही ऐसी हैं !!!!
एक अतिरिक्त विषय था. हमारे एक मित्र के बड़े भाई ने उदारीकरण और लाईसेंस राज के ख़तम होने की बात समझाने की कई बार बहुत कोशिश की , लेकिन हमारे समझ से दूर ...कुछ कुछ कमंडल का असर हो गया था. प्रेस्त्रोइका और ग्लास्नोस्त की भाषा बहुत कठिन थी. ....
१० साल गुजरने के बाद , जब पीछे के कहानी समझ में आई तो हमें आंध्र के एक ब्रह्मिन और पजाब के सरदार का योगदान समझ में आया ... एक चाणक्य की कूटनीति जानता था तो दूसरा अर्थशास्त्र . देश को एक दिशा दी और दशा भी बदल गयी. कमंडल वाले भी ..चाहे स्वदेशी की रट लगायें, किया वही जो सरदार ने सिखाया. परिणाम सबके सामने था. इंजीनियरिंग कॉलेज इतने, जितने की इतिहास के भी नहीं ..और नौकरियां इतनी की , एक पत्थर फेंको तो वो एक अमेरिका से वापिस आ रहे को लग जाये. क्या परिवर्तन कर दिखाया... अंश बेहिसाब बढ़ने लगा , हर को सभी भूल गए ....लेकिन इस खेल का दूसरा पहलु भी निकल आया, बिना मेह्नत की रोटी के खेल में बहुतों को स्वीश बैंक का रास्ता भी मिल गया. बेचारा सरदार बेबश हो कर देखता रहा. 2G और कोल गेट में अर्थशास्त्र भटक गया .
समय फिर करवट बदल रही थी. हम फिर १९९० के शुरुवाती दौर में पहुच गए . ममता, मुलायम और मायावती फिर से अपनी पैर फैला चुके हैं . कमंडल अपनी आस्तित्वा की तालाश में , संसद को सड़क पर ले आये हैं . उनका अर्थ शास्त्र भी वही है लेकिन करें तो क्या करें?
लेकिन आज सरदार फिर से वो रास्ते पर निकल पड़ा है....अफ़सोस उसके साथ चाणक्य नहीं है. पता नहीं कितनी दूर चल पायेगा... इन २० सालों का अर्थशास्त्र की मेरी समझ यही कहती है ..चले चलो , यही रास्ता है ...एक ही समझ नहीं आती है ..ये खेल अगर साफ़ सुथरे तरीके से होता तो ज्यादा अच्छा होता. क्या किया जाये, लक्ष्मी होती ही ऐसी हैं !!!!
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